बुधवार, 1 दिसंबर 2010

८२.जो तुम न होते

जो''औरत'न होती,तो न हम होते न तुम होते
न ताजमहल होता,न शहनाईयां होंती न नक्कारे होते,
होते सिर्फ,दिलजलों के सपनाई महल होते
जिनमें रोशनी नहीं,घुप्प अँधेरे होते |
न बीबियों के शानदार मकबरे होते
न दरबारों में लाजवाब नाच- गाने होते,
मकबरों की जगह सिर्फ चबूतरे होते
और दरबारों में सिर्फ बेनामी शायर होते |
न शायरी होती,न नामी शायर होते
न फूलों में पुंकेसर होते,न भोंरे उनका रस चूँसते ,
होतीं सिर्फ तुक-बंदियां,जिन्हें जबरन सुनते
फूलों की बजाय कांटें होते,जो हर जगह चुभते रहते |
न बरातें होंतीं ,न चुल -बुले बाराती होतें
न दहेज की पीड़ा होती,न दहेज के खरीदार होते,
न बेजा जुल्म होते,न जुल्मों के ठेकेदार होते,
होंतीं सिर्फ नाम की रातें ,जिसमें अधिकतर खैराती होते |
जो न होता हुस्न , तो बुर्के नदारत होते,
अगर कत्ले-आम मचता तो,पहरेदार निहथे होते
"पवन पागल" जो 'वो'न होंतीं,तो रौशनी की जगह अँधेरे होतें,
न कोई हमारा होता,न हम किसी के होंते |

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