Mere Dil Se.....

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

९९,शेर-शायरी 3

हर नई चीज कुछ वक़्त तक ठीक लगती है
मुफ्त में मिली हर चीज हर-वक़्त ठीक लगती है
माल-असबाबों के साथ ही ,वक़्त की हद ठीक लगती है
जो ये मुफ्त में मिली हमारी जान,हरदम ठीक ही लगती है

न होता काजल,बिंदी,और सिंदूर,तो सुन्दरता फूहड़ ही लगती
सीना तानें खड़ी भद्र नारी,कुमलाये फूल सी ही लगती
न होता खिजाब,पाउडर,और क्रीम,उम्र कुछ थमी सी लगती
जो होंतीं सभी सोंदर्य सामग्रियां,भद्र नारी अप्प्सरा सी लगती |

इधर से उधर भागते हुए , पाँव कुछ थक गये थे
पाँव तो कुछ खास नहीं,पाँव से ज्यादा,मन से थक गये थे
वो दरवाजे बंद कर दीयें जाएँ,जो ज्यादा ही खुल गये थे
बंद पड़े मयखानों में,फिर से पीने को कदम क्यों बढ़ गये थे |

क़दमों को जितनी ज्यादा तकलीफ दी जाये
उतना ही आराम ज्यादा मिलता है
तो फिर पूरे शरीर को ही , क्यों न ज्यादा तकलीफ दी जाये
शायद आराम के साथ " राम " भी मिल जाये |

जो तेरे रहमों-करम पर रहते हैं,तो भरपूर जीतें हैं
हम तो निक्कमें हैं,कुछ भी न करते,फिर भी जीतें हैं
जीते तो सभी हैं,जो तुझ पर भरोसा कर, तुझ में जीतें हैं
हमारे जैसे निक्कमें,नालायक,तेरे सहारे जी भर कर जीते हैं |

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